बालोद- बालोद नपा अध्यक्ष विकास चोपड़ा के प्रयास से छत्तीसगढ़िया संस्कृति से जुड़े भोजली घाट का निर्माण रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाए जाने वाले भोजली तिहार से पूर्व पूर्ण हो चुका है,
इस संबंध में नगर पालिका अध्यक्ष विकास चोपड़ा ने बताया की छत्तीसगढ़िया संस्कृति में भोजली तिहार का बहुत महत्व है जिस प्रकार भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी प्रकार हमारे खेतों में फसल दिन दूनी रात चौगुनी हो जाये , कहते हुए महिलाएं जैसे भविष्यवाणी करती हैं कि इस बार फसल लहलहायेगी और वे सुरीले स्वर में लोकगीत गाती हैं।
छत्तीसगढ़ में भोजली का त्योहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति एवं परम्पराओं के मूल में अध्यात्म एवं विज्ञान है । यहाँ लोकाचार भी अध्यात्म से पोषित होता है और विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही परम्पराओं की निसेनी तक पहुँचता है । यहाँ का लोक विज्ञान समृध्द है । हमारा छत्तीसगढ़ ” धान का बौटका ” है । यहाँ धान की शताधिक किस्में बोई जाती हैं । धान छत्तीसगढ़ की आत्मा है ।
भोजली : मित्रता की मिसाल
भोजली के लोकगीत है जो श्रावण शुक्ल नवमी से रक्षाबंधन के दुसरे दिन तक छत्तीसगढ़ के गांव गांव में गूंजते है और भोजली माई के याद में पूरे वर्ष भर गाए जाते है । छत्तीसगढ़ में बारिस के रिमझिम के साथ कुंआरी लडकियां एवं नवविवाहिताएं औरतें भोजली गाती है।
भोजली को घर के किसी पवित्र स्थान में छायेदार जगह में स्थापित किया जाता है । दाने धीरे धीरे पौधे बनते बढते हैं, महिलायें उसकी पूजा करती हैं एवं जिस प्रकार देवी के सम्मान में देवी की वीरगाथाओं को गा कर जवांरा – जस – सेवा गीत गाया जाता है वैसे ही भोजली दाई के सम्मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं । सामूहिक स्वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्तीसगढ की शान हैं । महिलायें भोजली दाई में पवित्र जल छिडकते हुए अपनी कामनाओं को भोजली सेवा करते हुए गाती हैं।
भादो कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को भोजली का विसर्जन किया जाता है । भोजली सेराने की यह प्रक्रिया बहुत ही सौहार्द्र पूर्ण वातावरण में अत्यन्त भाव पूर्ण ढंग से सम्पन्न होती है । मातायें-बहनें और बेटियाँ भोजली को अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए धारण करती हैं और भजन मण्डली के साथ, बाजे-गाजे के साथ भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब की ओर प्रस्थान करती हैं।
संध्या 4 बजे भोजली लेकर गांव की बालिकाएं गांव के चौपाल में इकट्ठा होती हैं और बाजे गाजे के साथ वे भोजली लेकर जुलूस की शक्ल में पूरे गांव में घूमती हैं। गांव का भ्रमण करते हुए गांव के गौंटिया/ मालगुजार के घर जाते हैं जहां उसकी आरती उतारी जाती है फिर भोजली का जुलूस नदी अथवा तालाब में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। नदी अथवा तालाब के घाट को पानी से भिगोकर धोया जाता है फिर भोजली को वहां रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है और तब उसका जल में विसर्जन किया जाता है। फिर भोजली को हाथ अथवा सिर में टोकनी में रख कर वापस आते समय मन्दिरों में चढ़ाते हुए घर लाती हैं।
छत्तीसगढ़ में मनाया जाने वाला भोजली का यह त्योहार मित्रता का ऐसा पर्व है जिसे जीवन भर निभाने का संकल्प लिया जाता है। इस दिन की खास बात यह है कि समवयस्क बालाये अपनी सहेलियो के कान में भोजली की बाली (खोंचकर) लगाकर ‘भोजली’ अथवा ‘गींया’ (मित्र) बदने की प्राचीन परंपरा है। जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम वे जीवन भर अपनी जुबान से नहीं लेते और उन्हें भोजली अथवा गींया संबोधित करके पुकारते हं। उनके माता-पिता भी उन्हें अपने बच्चों से बढ़कर मानते हैं। उन्हें हर पर्व और त्योहार में आमंत्रित कर सम्मान देते हैं।
नपाध्यक्ष विकास चोपड़ा ने बताया कि यही कारण है कि हमने भोजली घाट निर्माण के बारे में सोंचा ताकि जो लोग छत्तीसगढ़ की प्राचीन परंपरा से अवगत नहीं हैं वे अवगत हो सकें और जो लोग यह त्योहार मनाते हैं उनके लिए एक घाट बन जाय और इसी का नतीजा हैं कि भोजली घाट बनकर तैयार हो चुका है