बालोद- जिले के झलमला और चंदनबिरही में होलिका दहन नहीं किया जाता। ग्राम झलमला में 107 सालों से होलिका नहीं जलाई जा रही। यहां होलिका जलाने का रिवाज बुजुर्गों ने शुरू किया है। जिसका पालन अभी तक युवा पीढ़ी करते रहे हैं। इसे परंपरा कहे या अंधविश्वास लेकिन धार्मिक स्थल गंगा मैया के कारण प्रसिद्ध ग्राम झलमला में न तो होली जलाई जाती है और न ही दशहरे पर रावण दहन किया जाता है। साथ ही दीपावली पर गौरा-गौरी की पूजा नहीं की जाती और क्वांर नवरात्रि में जब झलमला में नवरात्र महोत्सव की धूम रहती है, तब भी वहां दुर्गा प्रतिमा की स्थापना नहीं की जाती। लेकिन यह जानकार अचरज होगा कि यहां सभी त्योहार धूमधाम के साथ मनाए जाते हैं। होली पर लोग रंग-गुलाल से सराबोर हो जाते है, फाग गीत गाए जाते हैं। दीपावली पर पूरा गांव दीपों से जगमगा उठता है, पटाखे चलाए जाते है। मिठाइयां बांटी जाती है। इस तरह त्यौहार मनाने में ग्रामीणों को कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन होली जलाने या रावण दहन करने में ग्रामीणों को झिझक होती है।
विपत्ति से परेशान लोगों ने राजा निहाल सिंह के कहने पर बंद की होलिका दहन
वहीं बालोद से 26 किलोमीटर दूर 1800 की आबादी वाला ग्राम चंदनबिरही में भी सन् 1926 से होलिका नहीं जलाई जा रही। यहां के ग्रामीण होली पर्व पर सात दिन तक रामधुनी पाठ करते हैं। जो 24 घंटे जारी रहती है। ग्रामीण बताते हैं कि 1926 से पहले गांव में कई प्रकार की विपत्तियां आई थी। इसलिए गांव में भय का माहौल रहता था। यहां के निवासी अपनी समस्या लेकर राजा निहाल सिंह गुंडरदेही के पास गए। राजा ने उन्हें रामधुनी (रामायण) करने की सलाह दी। तब से इस परंपरा का पालन किया जा रहा है। रामायण पाठ करने से ग्रामीणों के सामने विपत्तियां नहीं आई। तब से लेकर अब तक होलिका दहन नहीं किया जाता। 88 साल से गांव में होलिका दहन नहीं होता। जब ग्रामीण सभी त्यौहारों को पूरे उत्साह के साथ मनाते है तो होलिका और रावण पुतला दहन क्यों नहीं करते जब इस सवाल का जवाब पता लगाने के लिए कुछ ग्रामीणों से बातचीत की तो कोई खास वजह सामने नहीं आई। ग्रामीणों के अनुसार गांव में मान्यता है कि ऐसा करने से ग्राम देवता और ग्राम देवी, डिहवारिन देवी, दादा जोगीराव, बैगा भंडारी और गंगा मैया नाराज हो जाएंगे। देवी-देवता नाराज हो जाए तो भारी अनहोनी हो सकती है। लेकिन ग्रामीण यह बता नहीं पाए कि क्या अनहोनी हो सकती है। ग्रामीणों का कहना है कि अनावश्यक बहस और चर्चा से बचने के लिए इसे हम परंपरा ही मान ले तो बेहतर है। ग्रामीणों ने बताया कि यह परंपरा 107 साल पुरानी है। उन्होंने अपने जीवन में यहां कभी होली जलते और रावण दहन होते नहीं देखा है। जब इतने सालों से यह परंपरा चली रही है तो इनके पीछे कोई खास कारण जरूर होगा। इसलिए इन परंपराओं का पालन हम भी करते रहे हैं।