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बालोद। भारत सरकार द्वारा संत मीराबाई की 525 वी जयंती पर एक आकर्षक 525 रुपए का सिक्का जारी किया गया है। पहली बार इस तरह का सिक्का जारी हुआ है। वही डाक टिकट और सिक्कों के संग्राहक बालोद के डॉक्टर प्रदीप जैन के पास भी यह सिक्का उपलब्ध है। उन्होंने इस सिक्के और संत मीराबाई की जयंती को लेकर जानकारी भी साझा की है। ताकि लोग इस सिक्के का महत्व समझ सके। दरअसल में यह एक स्मारक सिक्का है।
डॉक्टर प्रदीप जैन ने बताया कि इस सिक्के के पृष्ठ भाग में मीराबाई को तंबूरा बजाते हुए कृष्ण भक्ति में तल्लीन दिखाया गया हैं। मीरा बाई की स्मृति में भारत का ये एकमात्र 525 रुपये का सिक्का जारी हुआ है।
उन्होंने बताया कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ की रचयिता महान मीराबाई का जन्म सन 1498 ई॰ में पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। चित्तौड़गढ़ के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तोड़ में मीरा की अनुपस्थिति में हुआ। पति की मृत्यु पर भी मीरा माता ने अपना श्रृंगार नहीं उतारा, क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थी। वे विरक्त हो गईं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन गई। वह जहाँ जाती थी, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय रहा है। इन सभी परिस्थितियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धति सर्वमान्य बनी। मीराबाई के भक्ति गीत को पदावली कहा जाता है।उनकी मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि वे रहस्यमयी परिस्थितियों में रात्रि में रणछोड़जी के मंदिर में उनकी प्रतिमा में ही समा गयीं।