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छग के पारंपरिक पर्व छेरछेरा का बालोद जिले में दिखा उत्साह….शहरी व ग्रामीण इलाको में सुबह से बच्चो महिलाओ की टोली के पहुंचने का सिलसिला रहा जारी

बालोद-जिला मुख्यालय सहित ग्रामीण अंचलों में अन्नादान का महापर्व छेरछेरा गुरुवार को श्रद्घा व उमंग के साथ धूमधाम से मनाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में यह पर्व नई फसल के खलिहान से घर आ जाने के बाद मनाया जाता है। इस दौरान लोग घर-घर जाकर लोग अन्ना का दान मांगते हैं। वहीं गांव के युवक-युवती व महिलाएं घर-घर जाकर डंडा नृत्य किया। जिला मुख्यालय में भी सुबह से ही बच्चों व महिलाओं की टोली सदर मार्ग, नया बस स्टैंड, फौव्वारा चौक के दुकानों में जाकर छेरछेरा मांगी गई। इस दौरान दुकानदार भी छेरछेरा वालों को चॉकलेट, पैसा व अन्ना का दान दिया। इसके साथ ही वार्डों के घरों में जाकर छेरछेरा मांगी गई। लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही बच्चे, युवक व युवतियां हाथ में टोकरी, बोरी आदि लेकर घर-घर छेरछेरा मांगते हैं। वहीं युवकों की टोलियां डंडा नृत्य कर घर-घर पहुंचती हैं। धान मिंजाई हो जाने के चलते गांव में घर-घर धान का भंडार होता है। जिसके चलते लोग छेरछेरा मांगने वालों को दान करते हैं। इन्हें हर घर से धान, चावल व नकद राशि मिलती है।

माई कोठी के धान हेर हेरा की गूंज दिन भर देती रही सुनाई

गुरुवार के दिन द्वार-द्वार पर छेरछेरा, कोठी के धान ल हेर हेरा की गूंज शाम तक सुनाई देती रही। पौष पूर्णिमा के अवसर पर मनाए जाने वाले इस पर्व के लिए लोगों में काफी उत्साह देखे जा रहे है। गावों में लोग अपने घरों के सामने बैठकर छेरछेरा मांगने वालो को अन्ना धान दिए जाते हैं। यह सिलसिला सुबह से लेकर शाम तक महिलाओं व पुरुषों की अलग-अलग टोली नाच गम्मत व नृत्य करने के बाद घर वालो से छेरछेरा मागते हैं। वहीं नाच गम्मत व नत्य से प्रभावित होकर ज्यादा अन्ना दान करते हैं। रामायण मंडलियों ने भी पर्व मनाने की खासी तैयारी की थी और पंथी नृत्य करने वाले दल भी छेरछेरा का आनंद लेते रहे। यह उत्सव कृषि प्रधान संस्कृति में दानशीलता की परंपरा को याद दिलाता है। उत्सव धर्मिता से जुड़ा छत्तीसगढ़ का मानस लोकपर्व के माध्यम से सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने के लिए आदिकाल से संकल्पित हो रहा है।

इस त्योहार के शुरू होने की कहानी है रोचक

मान्यता है कि इस दिन दान करने से घर में अनाज की कोई कमी नहीं रहती। इस त्योहार के शुरू होने की कहानी रोचक है। बताया जाता है कि कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय ने मुगल सम्राट जहांगीर की सल्तनत में रहकर राजनीति और युद्घकला की शिक्षा ली थी। वह करीब आठ वर्ष तक राज्य से दूर रहे। शिक्षा लेने के बाद जब वे रतनपुर आए तो लोगों को इसकी खबर लगी। खबर मिलते ही लोग राजमहल की ओर चल पड़े, कोई बैलगाड़ी से, तो कोई पैदल। छत्तीसगढ़ों के राजा भी कौशल नरेश के स्वागत के लिए रतनपुर पहुंचे। अपने राजा को आठ वर्ष बाद देख कौशल देश की प्रजा खुशी से झूम उठी। लोक गीतों और गाजे-बाजे की धुन पर हर कोई नाच रहा था। राजा की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी रानी फुलकैना ने आठ वर्ष तक राजकाज संभाला था। इतने समय बाद अपने पति को देख वह खुशी से फूली जा रही थी। उन्होंने दोनों हाथों से सोने-चांदी के सिक्के प्रजा में लुटाए। इसके बाद राजा कल्याण साय ने उपस्थित राजाओं को निर्देश दिए कि आज के दिन को हमेशा त्योहार के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन किसी के घर से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाएगा। इस दिन यदि आपके घर में छेर, छेरा! माई कोठी के धान ला हेर हेरा सुनाई दे तो चैंकिएगा नहीं। बस एक-एक मुट्ठी अनाज बच्चों की झोली में डाल दीजिएगा नहीं तो वे आपने दरवाजे से हटेंगे नहीं और कहते रहेंगे, अरन बरन कोदो करन, जब्भे देबे तब्भे टरन।

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